Kanda
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⌀ |
---|---|---|---|---|
Uttara Kanda
| 108 | 22 |
तैरेवमुक्तः काकुत्स्थो बाढमित्यब्रवीत् स्मयन् ।। 7.108.22 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 23 |
एतस्मिन्नन्तरे रामं सुग्रीवो ऽपि महाबलः । प्रणम्य विधिवद्वीरं विज्ञापयितुमुद्यतः ।। 7.108.23 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 24 |
अभिषिच्याङ्गदं वीरमागतो ऽस्मि नरेश्वर । तवानुगमने राजन्विद्धि मां कृतनिश्चयम् ।। 7.108.24 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 25 |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा रामो रमयतां वरः । वानरेन्द्रमथोवाचं मैत्रं तस्यानुचिन्तयन् ।। 7.108.25 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 26 |
सखे शृणुष्व सुग्रीव न त्वया ऽहं विनाकृतः । गच्छेयं देवलोकं वा परमं वा पदं महत् ।। 7.108.26 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 27 |
बिभीषणमथोवाच राक्षसेन्द्रं महायशाः । यावत्प्रजा धरिष्यन्ति तावत्त्वं वै बिभीषण । राक्षसेन्द्र महावीर्य लङ्कास्थस्त्वं धरिष्यसि ।। 7.108.27 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 28 |
यावच्चन्द्रश्च सूर्यश्च यावत्तिष्ठति मेदिनी । यावच्च मत्कथा लोके तावद्राज्यं तवास्त्विह ।। 7.108.28 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 29 |
शासितस्त्वं सखित्वेन कार्यं ते मम शासनम् । प्रजाः संरक्ष धर्मेण नोत्तरं वक्तुमर्हसि ।। 7.108.29 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 30 |
किञ्चान्यद्वक्तुमिच्छामि राक्षसेन्द्र महामते ।। 7.108.30 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 31 |
आराधय जगन्नाथमिक्ष्वाकुकुलदैवतम् । आराधनीयमनिशं सर्वैर्दैवैः सवासवैः ।। 7.108.31 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 32 |
तथेति प्रतिजग्राह रामवाक्यं विभीषणः । राजा राक्षसमुख्यानां राघवाज्ञामनुस्मरन् ।। 7.108.32 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 33 |
तमेवमुक्त्वा काकुत्स्थो हनूमन्तमथाब्रवीत् । जीविते कृतबुद्धिस्त्वं मा प्रतिज्ञां विलोपय ।। 7.108.33 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 34 |
मत्कथाः प्रचरिष्यन्ति यावल्लोके हरीश्वर । तावद्रमस्व सुप्रीतो मद्वाक्यमनुपालयन् ।। 7.108.34 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 35 |
एवमुक्तस्तु हनुमान्राघवेण महात्मना । वाक्यं विज्ञापयामास परं हर्षमवाप्य च ।। 7.108.35 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 36 |
यावत्तव कथा लोके विचरिष्यति पावनी । तावत्स्थास्यामि मेदिन्यां तवाज्ञामनुपालयन् ।। 7.108.36 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 37 |
जाम्बवन्तं तथोक्त्वा तु वृद्धं ब्रह्मसुतं तथा । मैन्दं च द्विविदं चैव पञ्च जाम्बवता सह ।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 38 |
तानेवमुक्त्वा काकुत्स्थः सर्वांस्तानृक्षवानरान् । उवाच बाढं गच्छध्वं मया सार्धं यथेप्सितम् ।। 7.108.38 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 108 | 39 |
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमदुत्तरकाण्डे ऽष्टोतरशततमः सर्गः ।। 108 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 1 |
प्रभातायां तु शर्वर्यां पृथुवक्षा महायशाः । रामः कमलपत्राक्षः पुरोधसमथाब्रवीत् ।। 7.109.1 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 2 |
अग्निहोत्रं व्रजत्वग्रे दीप्यमानं सह द्विजैः । वाजपेयातपत्रं च शोभमानं महापथे ।। 7.109.2 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 3 |
ततो वसिष्ठस्तेजस्वी सर्वं निरवशेषतः । चकार विधिवद्धर्मं महाप्रास्थानिकं विधिम् ।। 7.109.3 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 4 |
ततः सूक्ष्माम्बरधरो ब्रह्ममावर्तयन्परम् । कुशान्गृहीत्वा पाणिभ्यां प्रसज्य प्रययावथ ।। 7.109.4 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 5 |
अव्याहरन्क्वचित्किञ्चिन्निश्चेष्टो निःसुखः पथि । निर्जगाम गृहात्तस्माद्दीप्यमान इवांशुमान् ।। 7.109.5 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 6 |
रामस्य दक्षिणे पार्श्वे सपद्मा श्रीरपाश्रिता । सव्ये तु ह्रीर्महादेवी व्यवसायस्तथाग्रतः ।। 7.109.6 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 7 |
शरा नानाविधाश्चापि धनुरायतमुत्तमम् । तथा ऽ ऽयुधानि ते सर्वे ययुः पुरुषविग्रहाः ।। 7.109.7 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 8 |
वेदा ब्राह्मणरूपेण गायत्री सर्वरक्षिणी । ओङ्कारो ऽथ वषट्कारः सर्वे राममनुव्रताः ।। 7.109.8 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 9 |
ऋषयश्च महात्मानः सर्व एव महीसुराः । अन्वगच्छन्महात्मानं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।। 7.109.9 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 10 |
तं यान्तमनुगच्छन्ति ह्यन्तःपुरचराः स्त्रियः । सवृद्धबालदासीकाः सवर्षवरकिङ्कराः ।। 7.109.10 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 11 |
सान्तःपुरश्च भरतः शत्रुघ्नसहितो ययौ । रामं गतिमुपागम्य साग्निहोत्रमनुव्रतः ।। 7.109.11 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 12 |
ते च सर्वे महात्मानः साग्निहोत्राः समागताः । सपुत्रदाराः काकुत्स्थमनुजग्मुर्महामतिम् ।। 7.109.12 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 13 |
मन्त्रिणो भृत्यवर्गाश्च सपुत्रपशुबान्धवाः । सर्वे सहानुगा राममन्वगच्छन्प्रहृष्टवत् ।। 7.109.13 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 14 |
ततः सर्वाः प्रकृतयो हृष्टपुष्टजनावृताः । गच्छन्तमन्वगछंस्तं राघवं गुणरञ्जिताः ।। 7.109.14 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 15 |
ततः सस्त्रीपुमांसस्ते सपक्षिपशुवाहनाः । राघवस्यानुगाः सर्वे हृष्टा विगतकल्मषाः ।। 7.109.15 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 16 |
स्नाताः प्रमुदिताः सर्वे हृष्टाः पुष्टाश्च वानराः । दृढं किलकिलाशब्दैः सर्वं राममनुव्रतम् ।। 7.109.16 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 17 |
न तत्र कश्चिद्दीनो वा व्रीडितो वा ऽपि दुःखितः । हृष्टं समुदितं सर्वं बभूव परमाद्भुतम् ।। 7.109.17 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 18 |
द्रष्टुकामो ऽथ निर्यान्तं रामं जानपदो जनः । यः प्राप्तः सो ऽपि दृष्ट्वैव स्वर्गायानुगतो मुदा ।। 7.109.18 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 19 |
ऋक्षवानररक्षांसि जनाश्च पुरवासिनः । आगच्छन्परया भक्त्या पृष्ठतः सुसमाहिताः ।। 7.109.19 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 20 |
यानि भूतानि नगरे ऽप्यन्तर्धानगतानि च । राघवं तान्यनुययुः स्वर्गाय समुपस्थितम् ।। 7.109.20 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 21 |
यानि पश्यन्ति काकुत्स्थं स्थावराणि चराणि च । सर्वाणि रामगमने ह्यनुजग्मुर्हि तान्यपि ।। 7.109.21 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 22 |
नोच्छ्वसत्तदयोध्यायां सुसूक्ष्ममपि दृश्यते । तिर्यग्योनिगताश्चापि सर्वे राममनुव्रताः ।। 7.109.22 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 109 | 23 |
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमदुत्तरकाण्डे नवाधिकशततमः सर्गः ।। 109 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 1 |
अध्यर्धयोजनं गत्वा नदीं पश्चान्मुखाश्रिताम् । सरयूं पुण्यसलिलां ददर्श रघुनन्दनः ।। 7.110.1 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 2 |
तां नदीमाकुलावर्तां सर्वत्रानुसरन्नृपः । आगतः सप्रजो रामस्तं देशं रघुनन्दनः ।। 7.110.2 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 3 |
अथ तस्मिन्मुहूर्ते तु ब्रह्मा लोकपितामहः । सर्वैः परिवृतो देवैर्ऋषिभिश्च महात्मभिः ।। 7.110.3 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 4 |
आययौ यत्र काकुत्स्थः स्वर्गाय समुपस्थितः । विमानशतकोटीभिर्दिव्याभिरभिसंवृतः ।। 7.110.4 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 5 |
दिव्यतेजोवृतं व्योम ज्योतिर्भूतमनुत्तमम् । स्वयम्प्रभैः स्वतेजोभिः स्वर्गिभिः पुण्यकर्मभिः ।। 7.110.5 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 6 |
पुण्या वाता ववुश्चैव गन्धवन्तः सुखप्रदाः । पपात पुष्पवृष्टिश्च देवैर्मुक्ता महौघवत् ।। 7.110.6 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 7 |
तस्मिंस्तूर्यशतैः कीर्णे गन्धर्वाप्सरसङ्कुले । सरयूसलिलं रामः पद्भ्यां समुपचक्रमे ।। 7.110.7 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 8 |
ततः पितामहो वाणीमन्तरिक्षादभाषत । आगच्छ विष्णो भद्रं ते दिष्ट्या प्राप्तो ऽसि राघव ।। 7.110.8 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 9 |
भ्रातृभिः सह देवाभैः प्रविशस्व स्विकां तनुम् । यामिच्छसि महाबाहो तां तनुं प्रविश स्विकाम् । वैष्णवीं तां महातेजस्तद्वाकाशं सनातनम् ।। 7.110.9 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 10 |
त्वं हि लोकगतिर्देव न त्वां केचित्प्रजानते । ऋते मायां विशालाक्षीं तव पूर्वपरिग्रहाम् । त्वामचिन्त्यं महद्भूतमक्षयं सर्वसङ्ग्रहम् ।। 7.110.10 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 11 |
यामिच्छसि महातेजस्तां तनुं प्रविश स्वयम् ।। 7.110.11 ।। ां
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 12 |
विशालाक्षीं तव पूर्वपरिग्रहाम् । पितामहवचः श्रुत्वा विनिश्चित्य महामतिः । विवेश वैष्णवं तेजः सशरीरः सहानुजः ।। 7.110.12 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 13 |
ततो विष्णुमयं देवं पूजयन्ति स्म देवताः । साध्या मरुद्गणाश्चैव सेन्द्राः साग्निपुरोगमाः ।। 7.110.13 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 14 |
ये च दिव्या ऋषिगणा गन्धर्वाप्सरसश्च याः । सुपर्णनागयक्षाश्च दैत्यदानवराक्षसाः ।। 7.110.14 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 15 |
सर्वं पुष्टं प्रमुदितं सुसम्पूर्णमनोरथम् । साधु साध्विति तैर्देवैस्त्रिदिवं गतकल्मषम् ।। 7.110.15 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 16 |
अथ विष्णुर्महातेजाः पितामहमुवाच ह । एषां लोकं जनौघानां दातुमर्हसि सुव्रत ।। 7.110.16 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 17 |
इमे हि सर्वे स्नेहान्मामनुयाता यशस्विनः । भक्ता हि भजितव्याश्च त्यक्तात्मानश्च मत्कृते ।। 7.110.17 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 18 |
तच्छ्रुत्वा विष्णुवचनं ब्रह्मा लोकगुरुः प्रभुः । लोकान्सान्तानिकान्नाम यास्यन्तीमे समागताः ।। 7.110.18 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 19 |
यच्च तिर्यग्गतं किञ्चित्त्वामेवमनुचिन्तयत् । प्राणांस्त्यक्ष्यति भक्त्या वै तत्सन्ताने निवत्स्यति ।। 7.110.19 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 20 |
सर्वैर्ब्रह्मगुणैर्युक्ते ब्रह्मलोकादनन्तरे ।। 7.110.20 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 21 |
वानराश्च स्विकां योनिमृक्षाश्चैव तथा ययुः । येभ्यो विनिस्सृताः सर्वे सुरेभ्यः सुरसम्भवाः ।। 7.110.21 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 22 |
तेषु प्रविविशे चैव सुग्रीवः सूर्यमण्डलम् । पश्यतां सर्वदेवानां स्वान्पितऽन्प्रतिपेदिरे ।। 7.110.22 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 23 |
तथोक्तवति देवेशे गोप्रतारमुपागताः । भेजिरे सरयूं सर्वे हर्षपूर्णाश्रुविक्लवाः ।। 7.110.23 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 24 |
अवगाह्य जलं यो यः प्राणी ह्यासीत् प्रहृष्टवत् । मानुषं देहमुत्सृज्य विमानं सो ऽध्यरोहत ।। 7.110.24 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 25 |
तिर्यग्योनिगतानां च शतानि सरयूजलम् । सम्प्राप्य त्रिदिवं जग्मुः प्रभासुरवपूंषि च । दिव्या दिव्येन वपुषा देवा दीप्ता इवाभवन् ।। 7.110.25 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 26 |
गत्वा तु सरयूतोयं स्थावराणि चराणि च । प्राप्य तत्तोयविक्लेदं देवलोकमुपागमन् ।। 7.110.26 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 27 |
तस्मिन्नपि समापन्ना ऋक्षवानरराक्षसाः । ते ऽपि स्वर्गं प्रविविशुर्देहान्निक्षिप्य चाम्भसि ।। 7.110.27 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 28 |
ततः समागतान्सर्वान्स्थाप्य लोकगुरुर्दिवि । जगाम त्रिदशैः सार्धं सदा हृष्टैर्दिवं महत् ।। 7.110.28 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 110 | 29 |
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमदुत्तरकाण्डे दशाधिकशततमः सर्गः ।। 110 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 1 |
एतावदेतदाख्यानं सोत्तरं ब्रह्मपूजितम् । रामायणमिति ख्यातं मुख्यं वाल्मीकीना कृतम् ।। 7.111.1 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 2 |
ततः प्रतिष्ठितो विष्णुः स्वर्गलोके यथा पुरम् । येन व्याप्तमिदं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।। 7.111.2 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 3 |
ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः । नित्यं शृण्वन्ति सन्तुष्टाः दिव्यं रामायणं दिवि ।। 7.111.3 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 4 |
इदमाख्यानमायुष्यं सौभाग्यं पापनाशनम् । रामायणं वेदसमं श्राद्धेषु श्रावयेद्बुधः ।। 7.111.4 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 5 |
अपुत्रो लभते पुत्रमधनो लभते धनम् । सर्वपापैः प्रमुच्येत पदमप्यस्य यः पठेत् ।। 7.111.5 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 6 |
पापान्यपि च यः कुर्यादहन्यहनि मानवः । पठत्येकमपि श्लोकं पापात्स परिमुच्यते ।। 7.111.6 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 7 |
वाचकाय च दातव्यं वस्त्रं धेनुं हिरण्यकम् । वाचके परितुष्टे तु तुष्टाः स्युः सर्वदेवताः ।। 7.111.7 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 8 |
एतदाख्यानमायुष्यं पठन्रामायणं नरः । सपुत्रपौत्रो लोके ऽस्मिन्प्रेत्य चेह महीयते ।। 7.111.8 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 9 |
अयोध्या ऽपि पुरी रम्या शून्या वर्षगणान्बहून् । ऋषभं प्राप्य राजानं निवासमुपयास्यति ।। 7.111.9 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 10 |
एतदाख्यानमायुष्यं सभविष्यं सहोत्तरम् । कृतवान्प्रचेतसः पुत्रस्तद्ब्रह्माप्यन्वमन्यत ।। 7.111.10 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 11 |
अश्वमेधसहस्रस्य वाजपेयायुतस्य च । लभते श्रावणादेव सर्गस्यैकस्य मानवः ।। 7.111.11 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 12 |
प्रयागादीनि तीर्थानि गङ्गाद्याः सरितस्तथा । नैमिशादीन्यरण्यानि कुरुक्षेत्रादिकान्यपि । गतानि तेन लोके ऽस्मिन्येन रामायणं श्रुतम् ।। 7.111.12 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 13 |
हेमभारं कुरुक्षेत्रे ग्रस्ते भानौ प्रयच्छति । यश्च रामायणं लोके शृणोति सदृशावुभौ ।। 7.111.13 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 14 |
सम्यक्छ्रद्धासमायुक्तः शृणुते राघवीं कथाम् । सर्वपापात्प्रमुच्येत विष्णुलोकं स गच्छति ।। 7.111.14 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 15 |
आदिकाव्यमिदं त्वार्षं पुरा वाल्मीकिना कृतम् । यः शृणोति सदा भक्त्या स गच्छेद्वैष्णवीं तनुम् ।। 7.111.15 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 16 |
पुत्रदाराश्च वर्धन्ते सम्पदः सन्ततिस्तथा । सत्यमेतद्विदित्वा तु श्रोतव्यं नियतात्मभिः ।। 7.111.16 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 17 |
गायत्र्याश्च स्वरूपं तद्रामायणमनुत्तमम् ।। 7.111.17 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 18 |
अपुत्रो लभते पुत्रमधनो लभते धनम् । सर्वपापैः प्रमुच्येत पदमप्यस्य यः पठेत् ।। 7.111.18 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 19 |
यः पठेच्छृणुयान्नित्यं चरितं राघवस्य ह । भक्त्या निष्कल्मषो भूत्वा दीर्घमायुरवाप्नुयात् ।। 7.111.19 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 20 |
चिन्तयेद्राघवं नित्यं श्रेयः प्राप्तुं य इच्छति । श्रावयेदिदमाख्यानं ब्राह्मणेभ्यो दिने दिने ।। 7.111.20 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 21 |
यस्त्विदं रघुनाथस्य चरितं सकलं पठेत् । सो ऽसुक्षये विष्णुलोकं गच्छत्येव न संशयः ।। 7.111.21 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 22 |
पिता पितामहस्तस्य तथैव प्रपितामहः । तत्पिता तत्पिता चैव विष्णुं यान्ति न संशयः ।। 7.111.22 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 23 |
चतुर्वर्गप्रदं नित्यं चरितं राघवस्य तु । तस्माद्यत्नवता नित्यं श्रोतव्यं परमं सदा ।। 7.111.23 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 24 |
शृण्वन्रामायणं भक्त्या यः पादं पदमेव वा । स याति ब्रह्मणः स्थानं ब्रह्मणा पूज्यते सदा ।। 7.111.24 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 25 |
एवमेतत्पुरावृत्तमाख्यानं भद्रमस्तु वः । प्रव्याहरत विस्रब्धं बलं विष्णोः प्रवर्धताम् ।। 7.111.25 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 26 |
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे श्रीमद्वाल्मीकीये आदिकाव्ये चतुर्विंशत्सहस्रिकायां संहितायां श्रीमदुत्तरकाण्डे एकादशोत्तरशततमः सर्गः ।। 111 ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 27 |
।। इत्युत्तरकाण्डः समाप्तः ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 28 |
।। इत्यार्षे श्रीमद्वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद्रामायणं सम्पूर्णम् ।।
| null |
Uttara Kanda
| 111 | 29 |
।। श्रीसीतारामचन्द्रार्पणमस्तु ।।
| null |
Subsets and Splits
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