Hindi
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उससे ऋदन्तात् प्रातिपदिकात् नान्तात् और प्रातिपदिकात् प्राप्त होता है। | तेन ऋदन्तात् प्रातिपदिकात् नान्तात् प्रातिपदिकात् च इति लभ्यते। |
35. अव्ययीभावसमास में अमादेश विधायक दो सूत्र कौन से हैं? | ३५. अव्ययीभावसमासे अमादेशविधायकं सूत्रद्वयं किम्? |
अपिहितम् इसका क्या अर्थ है? | अपिहितम् इत्यस्य कः अर्थः। |
उनमें अद्रव्य वाचि शब्द और जो चादिगण में पढ़े हुए है, उनका चादयोऽसत्त्वे' इस सूत्र से निपातसंज्ञा का विधान है। | तेषु अद्रव्यवाचिनः शब्दाः ये च चादिगणे पठिताः तेषां चादयोऽसत्त्वे इति सूत्रेण निपातसंज्ञा विधीयते। |
और वहाँ विविध सूक्तों में लौकिक विषयों पर राजकर्म आदि का विधान है। | तत्र च विविधेषु सूक्तेषु लौकिकविषयाणां राजकर्मादीनां विधानम् अस्ति। |
अतः कर्ता में और करण में तृतीया का कहीं समास नहीं होता है। | अतः कर्तरि करणे च या तृतीया तदन्तमपि क्वचिन्न समस्यते। |
पुनः टाप् प्रत्यय के पकार की हलन्त्यम् सूत्र से इत्संज्ञा होती है। | पुनः टापः पकारस्य हलन्त्यम् इति सूत्रेण इत्संज्ञा भवति। |
स्यान्तस्योपोत्तमं च॥ | स्यान्तस्योपोत्तमं च॥ (वा. ६५३) |
30. नृणां द्विजः श्रेष्ठः यहाँ पर षष्ठी समास क्यों नहीं हुआ? | नृणां द्विजः श्रेष्ठः इत्यत्र कथं न षष्ठीसमासः? |
प्राज्ञ आत्मा का तृतीय पाद होता है। | प्राज्ञः आत्मनो तृतीयः पादः भवति। |
उसी के द्वारा ही वस्तुतः धर्म प्रदान करना सार्थक होगा। | तेन एव वस्तुतः धर्मदानं सार्थकं भवति। |
स्वाध्याय के द्वारा इष्टदेवता के दर्शन भी योगियों को सम्भव होते है- सूत्रितं च “स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोग” इति। | स्वाध्यायेन योगिनः इष्टदेवदर्शनं सम्भवति। सूत्रितं च - “स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोग” इति। |
चायृ पूजानिशामनयोः इस धातु को 'चायतेरन्ने हस्वश्च' इस उणादिक सूत्र से असुन् प्रत्यय करने पर आकार के अकार में नुडागम अनुबन्ध लोप करने पर चय् न् अस्' इस स्थिति में “लोपो व्योर्वलि इससे यकार का लोप करने की प्रक्रिया में 'चन:' यह रूप बनता है। | चायृ पूजानिशामनयोः इति धातोः 'चायतेरन्ने ह्रस्वश्च' इत्यौणादिकसूत्रेण असुन्प्रत्यये आकारस्य अकारे नुडागमेऽनुबन्धलोपे चय् न् अस् इति स्थिते लोपो व्योर्वलि इत्यनेन यकारस्य लोपे प्रक्रियायां 'चनः' इति रूपम्। |
जिसके बिना कोई भी कार्य नही किया जा सकता है। | येन विना किमपि कार्यं कर्तुं न शक्यते। |
समासान्त के टच् प्रत्यय के विधान के लिए यह सूत्र प्रवृत्त होता है। | समासान्तस्य टच्प्रत्ययस्य विधानाय इदं सूत्रं प्रवृत्तम्। |
उस यज्ञ से गायत्री आदि उत्पन्न हुए। | तस्मात् यज्ञात् छन्दांसि गायत्र्यादीनि जज्ञिरे। |
ये सभी मन्त्र ऋग्वेद के विभिन्न मण्डलों में प्राप्त होते हैं। | एते सर्वेऽपि मन्त्राः ऋग्वेदस्य विभिन्नमण्डलेषु समुपलब्धाः भवन्ति। |
ऋग्वेद के दसवें मण्डल में किन प्रत्ययों का प्रयोग मिलता है? | ऋग्वेदस्य दशममण्डले केषां प्रत्ययानां प्रयोगः दृश्यते? |
उसका अन्तिम भाग अस्थि होता है। | तस्य स्थविष्ठो भागः अस्थि। |
अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः इसका एक उदाहरण लिखिए। | अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः इत्यस्य उदाहरणम् एकं लिखत। |
इसके बाद तद्धितेष्वचामादेः इस सूत्र से आदि वृद्धि होने पर यस्येति च सूत्र से अम्बष्ठ शब्द के अन्त्य अकार का लोप होने पर आम्बष्ठ य रूप होता है। | ततः तद्धितेष्वचामादेः इति सूत्रेण आदिवृद्धौ यस्येति च इति सूत्रेण अम्बष्ठशब्दस्य अन्त्यस्य अकारस्य लोपे च सति आम्बष्ट य इति रूपं भवति। |
उदाहरण -वार्तिक का उदाहरण है सर्पिषः ज्ञानम्। | उदाहरणम् - वार्तिकस्यास्योदाहरणं सर्पिषो ज्ञानम् इति। |
और भी यहाँ पद यदि केवल दो अच् विशिष्ट ही होता, तृणवाचक अथवा धान्यवाचक नहीं है, तो वहाँ पर भी प्रकृत सूत्र से उस शब्द का आदि स्वर उदात्त नहीं होता है। | अपि च अत्र पदं यदि केवलं दुव्यच्-विशिष्टमेव भवति, तृणवाचकं धान्यवाचकं वा न भवति तर्हि तत्र प्रकृतसूत्रेण तस्य शब्दस्य आदिः स्वरः उदात्तो न भवति। |
घी और जल तुम दोनों का अनुसरण करते है। | घृतं तथा उदकम् उभयमपि भवतां अनुसरणं कुरुतः। |
शेषम् यह प्रथमा एकवचनान्त पद है, सर्वम्, अनुदात्तं ये दो पद भी प्रथमा एकवचनान्त है। | शेषम् इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्, सर्वम्, अनुदात्तं इति पदद्वयमपि प्रथमैकवचनान्तम्। |
सबसे पहले अन्तरिन्द्रिय का निग्रह करना चाहिए। | आदौ अन्तरिन्द्रियस्य निग्रहः कर्तव्यः| |
ब्रह्म स्वरूप का उसकी प्राप्ति उपाय का, जीव का, जगत का, तथा आत्मा आदि विषयों का विस्तार सहित वर्णन उपनिषद् में है। | ब्रह्मणः स्वरूपस्य तत्प्राप्त्युपायस्य जीवस्य जगतश्च तथा आत्मादिविषयाणां सविस्तरं वर्णनम् उपनिषदि अस्ति। |
समीप आओ यह उसका अर्थ है। | समीपम् आगच्छसि इति तदर्थः। |
सुब्रह्मण्यायाम् उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः इस सूत्र में विधीयमान एकश्रुति स्वर क्या है? | सुब्रह्मण्यायाम् उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः इति सूत्रे विधीयमानः एकश्रुतिस्वरः कः? |
ये दोनों मन्त्र परस्पर विरुद्ध हैं, इस कारण विपरीत अर्थ दोष स्वीकार नहीं है। | इदं मन्त्रद्वयं परस्परविरुद्धम् अतः विपरीतार्थदोषः अपरिहार्यः। |
उनकी पत्नियो की अवस्था किस प्रकार होती है। | तेषां पत्नीनां कीदृशी अवस्था भवति । |
विन्दते - विद्-धातु से लट्-लकार प्रथमपुरुष एकवचन का यह रूप है। | विन्दते - विद्-धातोः लट्-लकारस्य प्रथमपुरुषस्य एकवचने रूपम् इदम्। |
अब दोनों शब्दों का प्रयोग लगभग समान अर्थ में ही होता है। | अधुना उभयोः शब्दयोः प्रयोगः प्रायः समानार्थे एव भवति। |
केवल इसी प्रकार ही नही अपितु वे क्रोधि के सामने भी नही झुकते है। | न केवलम् एवंभूताः अपि तु ते क्रोधिनः सम्मुखे न नमन्ति । |
ऋग्वेद में भी दो पाद वाली ऋचा है। | ऋग्वेदे नित्यद्विपदाऽपि ऋचः सन्ति। |
अतः विधिवत तरीके से ही वेदवेदाङ्गों का अध्ययन करना चाहिए। | अतो विधिवदेव वेदवेदाङ्गाध्ययनं कर्तव्यम्। |
5 अन्तः करण ही जीव की उपाधि होता है। | ५. अन्तःकरणमेव जीवोपाधिः। |
यहाँ अमुष्य यह षष्ठी एकवचनान्त पद है, इति यह अव्यय है, अन्तः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है। | अत्र अमुष्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्, इति इत्यव्ययम्, अन्तः इति च प्रथमैकवचनान्तं पदम्। |
उसी प्रकार से चित्त मलिन होता है। | तथाहि अनुमानम्- चित्तं मलिनम् |
वह रेचक कहलाता है। | रेचको हि। |
“पापाणके कुत्सितैः” इस सूत्र का क्या अर्थ है? | "पापाणके कुत्सितैः" इति सूत्रस्यार्थः कः। |
अग्न आया हि वीतये' (ऋ. ६.१६.१०) सूत्र अर्थ का समन्वय - ` इषे त्वोर्जे त्वा। | अग्न आया हि वीतये' (ऋ. ६.१६.१०) सूत्रार्थसमन्वयः - ' इषे त्वोर्ज त्व। |
महर्षि पतञ्जलि के मत में अथर्ववेद की कितनी शाखा है? | महर्षिपतञ्जलेः मते अथर्ववेदस्य कति शाखाः? |
जैसे वैदिक विधानों को पूर्ण करने के लिए ब्राह्मण ग्रन्थ का उपयोग करते हैं वैसे ही उच्चारण प्रयोजन के लिए शिक्षा का भी उपयोग होता है। | यथा वैदिकविधीनां सम्पादनार्थं ब्राह्मणग्रन्थाः उपयुज्यन्ते, तथैव उच्चारणप्रयोजनाय शिक्षाया अपि उपयोगो भवति। |
सूत्र का अर्थ - यावत् और यथा से युक्त, एवं उपसर्ग से व्यवहित अन्तर तिङ को अनुदात्त नहीं होता है, पूजा विषय में। | सूत्रार्थः - यावत्-यथाभ्याम् युक्तम् उपसर्गव्यपेतं तिङ् न अनुदात्तं पूजायाम्। |
और इस प्रकार यहाँ ज्येष्ठ कनिष्ठयोः यह षष्ठी द्विवचनान्त पद है, वयसि यह सप्तमी एकवचनान्त पद है। | एवञ्च अत्र ज्येष्ठकनिष्ठयोः इति षष्ठीद्विवचनान्तं पदम्, वयसि इति च सप्तम्येकवचनान्तं पदम्। |
वहाँ प्रमाण है। | तत्र प्रमाणम् । |
त्रिष्टुप्छन्द, अन्तरिक्ष लोक, माध्यन्दिन सोम सवन, ग्रीष्मऋर्तु, सोमपान, वीरत्व पूर्ण कर्म, असुर वध ये सब विषय इन्द्र के साथ नित्य सम्बद्ध है। | त्रिष्टुप्छन्दः, अन्तरिक्षलोकः, माध्यन्दिनसोमसवनम्, ग्रीष्मर्तुः, सोमपानम्, वीरत्वपूर्णं कर्म, असुरवधः इत्येते विषयाः इन्द्रेण साकं नित्यं सम्बद्धाः। |
महिना - मह-धातु से इन्प्रत्यय करने पर महिन् यह हुआ उसी का तृतीया एकवचन में वैदिकरूप है। | महिना - मह्-धातोः इन्प्रत्यये महिन् इति जाते तृतीयैकवचने वैदिकरूपम्। |
अब मन की शुद्धि किस प्रकार से होती है इस पर विचार किया जा रहा है। | कथं मनसः शुद्धिः सम्पादयितुं शक्यतेति चिन्त्यते। |
8. बभूव के भू- में कौन सा स्वर है? | 8. बभूव इत्यत्र भू-इत्यत्र कः स्वरः। |
वहाँ पर सूक्ष्मविषयों के अनुभव के कारण वह प्रविविक्तभुक् होता है। | तत्र सूक्ष्मविषयान् अनुभवतीति कारणात् स प्रविविक्तभुक् भवति। |
यह गाँव कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के पूर्व दिशा में बसा हुआ था। | ग्रामोऽयं कुरुक्षेत्रे सरस्वतीनद्याः पूर्वस्यां दिशि अवस्थितः आसीत्। |
उसके बाद में “वो अश्वाः” इस स्थिति में “एङ: पदान्तादति ' इस सूत्र से ओकार-अकार के स्थान में पूर्वरूप होने पर “एकादेश उदात्तेनोदात्तः' इस सूत्र से वकार से उत्तर उकार उदात्त है, ` अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' इस सूत्र के अनुसार से श्वा- यहाँ पर आकार अनुदात्त है। | ततः वो अश्वाः इति स्थिते एङः पदान्तादति इति सूत्रेण ओकार-अकारयोः स्थाने पूर्वरूपे 'एकादेश उदात्तेनोदात्तः' इति सूत्रेण वकारोत्तरः उकारः उदात्तः, 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' इति सूत्रानुसारेण श्वा- इत्यत्र आकारः अनुदात्तः। |
एकाग्रता के अभाव में निदिध्यासन सम्भव नहीं होता है। | एकाग्रतायाः अभावे निदिध्यासनं न सम्भवति। |
प्रजापति की उपांशु रूप से प्रार्थना के लिए शतपथ ब्राह्मण में जिस कथानक का उपक्रम प्राप्त होता है वह तो बिल्कुल रहस्यमय है। | प्रजापतेः उपांशुरूपेण प्रार्थनायै शतपथब्राह्मण यस्य कथानकस्य उपक्रमं प्राप्यते तत्तु नितान्तं रहस्यमयम् अस्ति। |
'महच्छब्दादिमनिचि श्टे:' (पा. ६. ४. १५५) इससे टिलोप हुआ। | 'महच्छब्दादिमनिचि 'टेः' (पा. ६. ४. १५५) इति टिलोपः। |
28. समाधि में वृत्ति के स्थितिविषय में विद्यारण्य स्वामी ने क्या कहा है? | २८. समाधौ वृत्तेः स्थितिविषये विद्यारण्यस्वामिना किमुक्तम्? |
सूत्रार्थ होता है- “'मतिबुद्धिपूजार्थो से विहित जो क्त प्रत्यय, उससे षष्ठयन्त सुबन्त का समास नहीं होता है। | एवं सूत्रार्थो भवति - "मतिबुद्धिपूजार्थभ्यश्च इत्यनेन विहितः यः क्तप्रत्ययः, तदन्तेन षष्ठ्यन्तस्य सुबन्तस्य समासो न भवति" इति। |
चारों वेदों में ऋग्वेद की महानता का वर्णन सबसे अधिक है। | चतुर्षु वेदेषु ऋग्वेदस्य माहात्म्यं सर्वातिशयि अस्ति| |
धारणा कुशलता के अभाव में चित्त के पूर्णरूप से स्थित नहीं होने पर ब्रह्म विषय में जो विचलित चित्तवृत्ति होती है वह ध्यान कहलाता है। | धारणापटुत्वाभावेन चित्तस्थैर्यस्य अभावात् यदा ब्रह्मविषयिणी विच्छिद्य विच्छिद्य चित्तवृत्तिः भवति तत् ध्यानम् इत्युच्यते। |
उसके बाद ग्यारहवें अध्याय से आरम्भ करके अठारहवें अध्याय पर्यन्त अग्नि चयन विषय में आलोचना है। | तदनन्तरम् एकादशाध्यायाद् आरभ्य अष्टादशाध्यायपर्यन्तम् अग्निचयनविषये आलोचना वर्तते। |
हिरण्यवर्णा हरिणीम् इत्यादि मन्त्र किस सूक्त में है? | हिरण्यवर्णा हरिणीम् इत्यादिमन्त्रः कस्मिन् सूक्ते वर्तते? |
यह छान्दोग्य श्रुति तेज के जन्म देने में प्रधान नहीं होकर भी श्रुत्यन्तर प्रसिद्ध रूप में आकाश की उत्पत्ति का निवारण कर सकती है। | न हीयं छान्दोग्यश्रुतिः तेजोजनिप्रधाना सती श्रुत्यन्तरप्रसिद्धाम् आकाशस्योत्पत्तिं वारयितुं शक्नोति। |
और इसकी रूप प्रक्रिया अजन्त स्त्रीलिङ्ग प्रकरण में गौरी शब्द के समान जाननी चाहिए। | अस्य रूपप्रक्रिया च अजन्तस्त्रीलिङ्गप्रकरणे गौरीशब्दवद् बोध्या। |
2. कितने स्त्री प्रत्यय हैं? | २. कति स्त्रीप्रत्ययाः सन्ति? |
नहीं तो घर में घट है, घट में रूप है। | अन्यथा गेहे घटः, घटे रूपम्। |
कहे हुए से अन्य शेष है। | उक्तादन्यः शेषः। |
जिस स्थान पर दिव्य लोगो की कामना करने वाले देव के प्रकाशशील स्वभाव को विष्णु आत्मा को चाहने वाले यज्ञदान आदि के द्वारा प्राप्त करने की इच्छा वाले मनुष्य प्रसन्नता का अनुभव करते है। | यत्र स्थाने देवयवः देवं द्योतनस्वभावं विष्णुमात्मन इच्छन्तो यज्ञदानादिभिः प्राप्तुमिच्छन्तः नरः मदन्ति तृप्तिमनुभवन्ति। |
करता हूँ, करवाता हूँ, भजता हूँ, भजवाता हूँ, इस प्रकार के मोह को संसारी प्राप्त हो जाते हैं। | करोमि कारयामि भोक्ष्ये भोजयामि' इत्येवं मोहं गच्छन्ति संसारिणो । |
इस सूत्र में षष्ठ्यन्त का एक ही पद है 'धातोः। | अस्मिन् सूत्रे षष्ठ्यन्तम् एकमेव पदम् अस्ति 'धातोः इति। |
योग्यतारूप में यथा अर्थ में अव्ययीभावसमास का उदाहरण होता है अनुरूपम्। | योग्यतारूपे यथार्थ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं भवति अनुरूपम् इति। |
जिस प्रकार से पूर्वपात्त दुरित्तों के अनारब्धफल सम्भव होते हैं वैसे ही पुण्यों के भी अनारब्ध फल सम्भव होना चाहिए। | यथा पूर्वोपात्तानां दुरितानाम् अनारब्धफलानां सम्भवः, तथा पुण्यानाम् अनारब्धफलानां स्यात् सम्भवः। |
इसलिये ही इस सूक्त में अक्षदेव से प्रार्थना की गई- 'प्रावेपा मा बृहतो मादयन्ति ' इत्यादि मन्त्रों के द्वारा। | एतदर्थमेव अस्मिन् सूक्ते अक्षदेवः प्रार्थ्यते प्रावेपा मा बृहतो मादयन्ति' इत्यादिमन्त्रैः । |
20.5 मित्रावरुण का स्वरूप वैदिकयुग में प्रसिद्ध देवताओ में अन्यतम ही वरुणदेवता है। | २०.५) मित्रावरुणस्वरूपम् वैदिकयुगे प्रसिद्धासु देवतासु अन्यतमा हि वरुणदेवता। |
जिस प्रकार दीपक एकस्थान पर स्थित होकर पूरे घर में प्रकाश फैलाता है उसी प्रकार परिभाषा सूत्र एक जगह स्थित होकर भी सम्पूर्ण अष्टाध्यायी में प्रवर्न्त हो रहे है। | यथा प्रदीपः एकदेशस्थः सन् सर्वं गृहम् अभिज्वालयति एवमेव परिभाषासूत्रम् एकत्र स्थितमपि सम्पूर्णायाम् अष्टाध्याय्यां प्रवर्तते। |
अर्थात् उन दोनों का फल प्राप्त होता ही है। | अर्थात् तयोः फलं भवति एव। |
अपानो नाम सृष्टि प्रलय विचार बुद्धिकर्मन्द्रियप्राणपञ् धिया। | बुद्धिकर्मेन्द्रियप्राणपञ्चकैर्मनसा धिया। |
इसलिए इस मण्डल के समस्त सूक्तों की संख्या (९९) निन्यानवे होती है। | अतोऽस्य मण्डल्यस्य समस्तसूक्तानां संख्या (९९) नवनवतिर्भवति। |
रुणध्मि - रुध्-धातु से लट् उत्तमपुरुष एकवचन में। | रुणध्मि - रुध् - धातोः लटि उत्तमपुरुषैकवचने । |
अन्वय का अर्थ - असौ - वह, यः - जो, ताम्रः- ताम्रवत, अरुणः - सुंदर गौरांग, उत - अथवा, बभ्रुः - पीला वा धुमेला युक्त वर्ण युक्त, सुमङ्गलः -मड्गलमय, ये च पुनः, सहस्रशः - हजारो, रुद्राः - दुष्टों को रुलाने हारे, एनम् - इस रूद्र के, अभितः - चारो और, दिक्षु दिशाओं में, श्रिताः - आश्रय से वसते हो, एषाम् - इनका, हेडः - शत्रुओं का अनादर करने हारे, अव ईमहे - विरुद्धाचरण की इच्छा नहीं करते है। | अन्वयार्थः- असौ - अयं, यः- यत्, ताम्रः - ताम्रवर्णीयः, अरुणः - रक्तवर्णीयः, उत - अथवा, बभ्रुः- पिङ्गलवर्णीयः, सुमङ्गलः - मङ्गलमयः, ये च पुनः, सहस्रशः -सहस्रसंख्यकः, रुद्राः -रश्मयः, एनम्- एतम्, अभितः- पुरस्तात्, दिक्षु - काष्ठासु, श्रिताः -आश्रिताः, एषाम् - एतेषां, हेडः - क्रोधः, अव ईमहे भक्त्या दूरं करोमि। |
अनित्य सुख जन्य है। | अनित्यम् सुखम् जन्यम् अस्ति। |
यज्ञपुरुष के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य, पैरों से शूद्र ये वर्णचतुष्टय उत्पन्न हुआ। | यज्ञपुरुषस्य मुखात् ब्राह्मणः, बाहुभ्यां क्षत्रियः, उरुभ्यां वैश्यः, पादाभ्यां च शूद्रः इति वर्णचतुष्टयं समुत्पन्नम्। |
शकुंलया खण्डः इति विग्रह में शङकुलाखण्डः। | शङ्कुलया खण्डः इति विग्रहे शङ्कलाखण्डः। |
वहां देवः: पुरुषविधः साकारः इस विषय में युक्त से आलोचना करते है - 1) देवों का शरीर पुरुष के शरीर के समान नही होता है तो कर्मादि भी नही होने चाहिए। | तत्र देवः पुरुषविधः साकारः इति विषये युक्तयः आलोच्यन्ते- १) देवानां शरीरं पुरुषशरीरमिव न भवति चेत् कर्मादि अपि न भवेत्। |
सरलार्थ - में स्वय ही देवों के लिए और मनुष्यों के लिए इन अभीष्ट वाक्य को कहती हूँ। | सरलार्थः- अहं स्वयमेव देवैः मनुष्यैश्च अभीष्टम् इदं वाक्यं वदामि। |
5. मुण्डकोपनिषद् में कहा गया हैं कि “न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। | ५. मुण्डकोपनिषदि निगद्यते “न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। |
इसी प्रकार से शरीर का भी दर्शन तथा स्पर्श होता है। | एवं शरीरस्यापि स्पष्टं दर्शनमस्ति स्पर्शनञ्च। |
“'इच्कर्मव्यतिहारे” यह इच् प्रत्यय विधायक सूत्र है। | "इच्कर्मव्यतिहारे" इति इच्प्रत्ययस्य विधायकम्। |
अन्यतरस्याम् अव्ययपद है। | अन्यतरस्याम् इति अव्ययपदम्। |
काम प्ररेक तथ प्रवर्तक होता है। | कामः प्रेरकः प्रवर्तकः अस्ति। |
यहाँ तव मम इन दोनों के ङस् अन्त में होने से उसके परे तकार से उत्तर अकार को और मकार से उत्तर अकार को प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर सिद्ध होता है। | अत्र तव मम इत्यनयोः ङसन्तत्वात् तस्मिन परे तकारोत्तरस्य अकारस्य मकारोत्तरस्य अकारस्य च प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः सिध्यति। |
पाणिनीय व्याकरण में तो अन्य प्रसिद्ध व्याकरणों से स्वर विषय में चर्चा अधिक रूप से दिखाई देती है। | पाणिनीयव्याकरणे तु अन्येभ्यः प्रसिद्धव्याकरणेभ्यः स्वरविषयिणी चर्चा अधिकतया परिलक्ष्यते। |
यजमान प्रार्थना करते है की - हे जल प्रदाता देवो ! | यजमानः प्रार्थयति यत् - हे क्षिप्रदातारौ! |
पादहस्तादि स्थूल शरीर के अवयव होते हैं। | पादहस्तादयः स्थूलशरीरस्य अवयवाः भवन्ति। |
शतु: अनुमः नद्यजादी ये सूत्र में आये पदच्छेद हैं। | शतुः अनुमः नद्यजादी इति सूत्रगतपदच्छेदः। |
( ६.१.१८९ ) सूत्र का अर्थ- अजादि लसार्वधातुक परे हो, तो अभ्यस्त संज्ञको के आदि को उदात्त होता है। | (६.१.१८९) सूत्रार्थः- अनिट्यजादौ लसार्वधातुके परे अभ्यस्तानामादिरुदात्तः। |
इसलिए वेदांत में, उपनिषद् वाक्य में और ऋक्संहिता के अन्तर्गत पुरुष सूक्त में ऋक्-साम- यजुर्वेद का उल्लेख वेद के अस्तित्व विषय में प्रमाण है। | अतः वेदान्तर्भूते उपनिषद्वाक्ये ऋक्संहितान्तर्गते पुरुषसूक्ते च ऋक्-साम- यजुर्वेदानाम् उल्लेखः वेदस्य अस्तित्वविषये प्रमाणम्। |
तो कहते हैं की अशुद्ध मन बन्ध का कारण होता है। | अशुद्धं मनः बन्धस्य कारणं भवति। |
यत्र यहाँ पर यकार से उत्तर अकार का उदात्त स्वर किस सूत्र से होता है? | यत्र इत्यत्र यकरोत्तरस्य अकारस्य उदात्तस्वरः केन सूत्रेण भवति? |
Subsets and Splits